वैसे तो इस धरती मे हर प्राणी, अपने आस पास के माहौल मे कैसे भी जिंदा रहने के लिए और अपने पीढ़ी को आगे बढ़ाने के लिए संघर्ष करते रहते है.
इसे survival of the fittest कहते हैं.
लेकिन कुछ प्राणी ऐसे भी हैं जो इस बदलते संसार मे ऐसी नयी शक्ति लेकर आते हैं जो इससे पहले कभी न मिला हो. ऐसे अचानक से होने वाले परिवर्तन को कहते हैं Mutation! ये म्युटेशन अच्छी हो या बुरी, इसके पीछे कोई ना कोई मज़बूरी तो ज़रूर होगी.
कुछ ऐसा ही हुआ जब बंबई महानगर के सबसे बड़ा कूड़ा दान देवनर डमपिंग ग्राउंड मे, सालों साल से दबे हुए कचरे के पहाड़ मे, एक सफाई कर्मचारी ने मॉडर्न म्युटेशन के ऐसा चमत्कारी नमूना देखा! उन्होने देखा की एक फंगस की प्रजाति ने घास-फूस फल सब्ज़ी छोड़कर प्लास्टिक खाना शुरू कर दिया है! वे दिखने मे भी इतने सुंदर थे जैसे बारिश मे छोटे बच्चों के रंग बिरंगे छतरी!
वो सफाई कर्मचारी, अनिल यादव, कोई मामूली सफाइवाले नही थे जो मज़बूरी मे इस काम को करते थे. बल्कि वेस्ट-मॅनेज्मेंट मे शोध करने वाले उसी बस्ती के २६ साल के वे युवा वैज्ञानिक थे. हालाकी उनका बी.एम.सी के बिगड़े हुए बाबुओं के साथ ३६ का आखड़ा रहता था, लेकिन खुद्रत से, खुद से और आस पास के लोगों से गहरा अटूट रिश्ता था. जब रोज़ाना मामूली काम ख़तम हो जाता था तो बाकी समय वे लोगों को पर्यावरण के बारे मे जागृत करने, और रात भर विज्ञान, समाज शस्त्र आदि पढ़ने मे लगा देते थे.
अलग अलग पर्यावरण के बारे मे, और विभिन्न जीव जंतुओं के बारे मे वे रसायनिक तौर से एक दम अच्छे से वाकिफ़ थे…शायद इसीलिए जैसे ही उन्होने इस खुद्रती चमत्कार को देखा उनकी आँखें खुशी और उम्मीद से भर आई! अगर वे जीवन चक्र के आंतरिक रहस्यों से अंजान होते तो उनके लिए ये अद्बूत नज़ारा आँखों के सामने होते हुए भी अदृश्य होता!
जब वैज्ञानिकों को इनके खोज का पता चला तो पूरे विश्व मे हंगामा हो गया! और शोध करने पर ये पता चला की जितना सुंदर उस फंगस का रूप था उससे और भी सुंदर उसका कम! प्लास्टिक खाने वाले फंगस ना ही इस धीरकालीन प्रदूषक को ख़त्म करते थे, वे उन पदार्थों को पेड़ पौधों के लिए खाद मे भी परिवर्तित कर देते थे! एक तीर से दो निशान!
कुछ हाल फिलहाल मे लोगों को प्लास्टिक की ऐसी लत लग चुकी है की उसके उपयोग का बंद होना तो लगभग नामुमकिन है.
‘बिकम ईको फ्रेंड्ली’, ‘से नो टू प्लास्टिक’ जैसे नारे तो बच्चों मे प्रसिद्ध हो रहे थे लेकिन कई सालों से प्रथा चली आ रही है की जैसे बच्चे बड़े होते हैं तो न्याय-धर्म, आपस मे परस्पर प्रेम जैसे पाठ को भूलकर उसके ठीक उल्टा लोभ और स्वार्थ को ही समझदारी और होशियारी समझते हैं.
नोट बंदी के वजह से तमाम दिक्कतें हुई होंगी पर प्लास्टिक बंद करने के लिए ना पेट्रोकेमिकल उद्योग तैयार है, ना सरकार और न ही आम जनता.
लेकिन अनिल जानते थे की भले केंद्र मे, या राज्य मे, या नगर पालिका मे
कोई भी सरकार आए या जाए,
(भला हो जब आर्थिक-राजनीतिक षड्यंत्र से तमाम लोगों को आज़ादी मिल जाए),
अगर इस ईको-फ्रेंड्ली फंगस का साथ हो,
और इसके अनोखे हरकतों के बारे मे तमाम जानकारी पाने वाले शोध का विकास हो,
तो आम लोगों के और इस सुंदर पृथ्वी के अन्य प्यारे जीवों के लिए,
अच्छे दिन ज़रूर आएँगे!
http://indiatoday.intoday.in/education/story/plastic-eating-fungus/1/921074.html